नदी की धारा
एक आदमी को अपने गांव की नदी से बहुत लगाव था। वह उस नदी के बारे में सब कुछ जान लेना चाहता था। नदी नीचे की ओर बहते बहते कहां तक जाती है, कहां मुड़ती है, कहां समुद्र से मिलती है। उसने नदी से सभी शास्त्र और दस्तावेजों को पढ़ा। यह जाना कि पहले कौन-कौन नदी के अंतिम छोर तक गया है। कई लोग जा चुके थे, पर उनकी बातों को पढ़कर और उलझ
गया। उन सबके जवाब अलग थे। किसी ने कहा + कि नदी सीधी बह रही है। किसी का कहना था कि पांच मील के बाद नदी बाई ओर मुड़ जाती है। उसने कई लोगों से भी बात की ज्ञान और सलाहें देने के महारथियों ने उसे कई तरह की सलाहें दी। समस्या यह थी कि वह जितने ज्यादा लोगों से मिल रहा था, उसे नदी के बारे में उतनी अलग जानकारी मिल रही थी। अब उसने काफी सामग्री जुटाई। शास्त्रों, किताबों और लोगों की राय के आधार पर नदी का एक नक्शा बना लिया। उसे अपने इस नक्शे पर बड़ी खुशी हुई। अब उसने नदी के साथ चलना शुरू किया, पर कुछ दूरी पर जाकर ही समस्या उठ खड़ी हुई। नक्शे के हिसाब से पांच मील के बाद नदी को मुड़ना था। नदी उसके बनाए नक्शे को फॉलो नहीं कर रही थी। वह बेचैन हो गया। इतने दिन से जो उसने मेहनत की थी, उसका जो ज्ञान था, वह व्यर्थ साबित हो रहा था। उसे लगा कि अब उसे अनजाने रास्ते पर बढ़ना होगा। वहां खतरा हो सकता है। वह वहीं रुका रहा, उसे लगा किताबें झूठ कैसे बोल सकती है। पर सच यह है कि कोई नदी हमें या हमारे बनाए
नक्शे को नहीं सुनती नदी समय के साथ अपने रास्ते बदलती है। नदी तर्क पर नहीं बहतीं, वह सिर्फ महती है। अब यह एक गया और ध्यान करने लगा। अचानक उसे बोध हुआ दिक्कत नदी से नहीं, मेरे बनाए नक्शे के कारण हो रही है। सोचते ही उसने अपना नक्शा फेंक दिया और नदी के साथ बहने लगा। अब उसके प्रश्न भी अपने थे और जवाब भी।
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